खुद से बात करने की कला

खुद से बतियाना एक कला है जो साधना से उत्पन्न होती है। जिसने यह कला सीख ली दरअसल उसने अपने अंदर के संसार को देख लिया। एक ऐसा संसार जो इस बाहरी संसार से कही ज्यादा उत्कृष्ट है ।उस संसार मे इस भौतिक संसार की तरह भाग दौड़ नही है अगर हम उस संसार को बिकसित कर ले तो वहा सबसे पहले अपने आप से ही भेट होगी। जो आप से बोलेगा ।आप के साथ चलेगा संग संग हसेगा। आपके अंदर बैठा आपका प्रतिबिम्ब ही आपका ऐसा मित्र साबित होगा जो ककभी न रुठेगा और न कभी दोस्ती तोड़ेगा। वह आपका सबसे अच्छा मित्र बन जायेगा इसी को बिकसित करने मे ऋषि मुनि वर्षो जंगलो कन्दराओं मे गुजार देते है ।
यह एक गहरा दर्शन है । बनवास अवधि के दौरान सीता हरण के बाद भगवान राम ने भी पेड़ पौधो से बात की थी जो ब्रम्हांड के कण कण मे समाया हो वही राम बृक्षो से पत्थरो से पूछ रहे है को अहम्।
जिन्हें तीनो लोक जानता है। भला उसी कृपानिधान राम को मैं कौन हु पूछने की क्या जरूरत पड़ गयी वह भी पेड़ो पौधो से।
वास्तव मे राम जी एक सन्देश देना चाहते थे की पेड़ पहाड़ को माध्यम बना कर यदि अपने आप से बात करने की कला आ जाये तो आदमी जंगल पहाड़ रेगिस्तान कही भी जी सकता है।

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