दुनिया की तमाम आश्चर्य जनक चीजो का अध्ययन करने वाला एक विदेशी शोधकर्ता एरिक डेनिकेन् जब दिल्ली पहुचा तो लोगो ने उसे कुतुबमीनार देखने की हिदायत दी।
कुतुबमीनार देखकर उसे आश्चर्य तो हुआ पर सन्तुष्टी नही वह कुछ रहस्य और आश्चर्य जनक चीज ढूढ रहा था। तभी उसकी निगाह मीनार के निकट लौहस्तम्भ पर जा टीकी।
23 फुट 8 इंच लम्बे लगभग 18 इंच ब्यास वाले खण्डहीन लौह स्तम्भ को देखकर डेनिकेन् चकित रह गया। अनायास ही उसके मुह से निकल पड़ा ये यहाँ के आदमियो द्वारा नही अपितु दूसरे ग्रह के प्राणियो द्वारा प्राचीन भारत को दिया गया उपहार है।
यही बाते डेनिकेन् ने अपनी पुस्तक'देवताओ के रथ ' में लिखी। उसने लिखा इतना दोषहीन इस्पात आज तक विश्व में कही नही बना। इसमें प्रयोग किया गया लोहा आल्पस पर्वत और एंडीज पर्वत मालाओ पर पाये गए उन धातु के टुकड़ो से मेल खाती है जिनके बारे में यह निश्चित हो चूका है की ये करोड़ो वर्ष पुर्व आये अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा छोड़े गए यंत्रो के टुकड़े है।
12 टन वाले इस अद्भुत इस्पात स्तम्भ की धातु का सर्वप्रथम ब्यवस्थित अध्ययन प्राचीन इमारतों और स्मारकों में प्रयुक्त धातुओ पर शोध कर रहे राबर्ट हैडफील्ड ने किया था। राबर्ट हैडफील्ड ने धातु का विश्लेषण करके बताया की सामान्यतया इस्पात को किसी निश्चित आकार में ढालने के लिए 1300-1400 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। पर जो इस्पात इस स्तम्भ में लगे है उसे राट आइरन कहलाता है जिसे गलने के लिए 2000 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक तापमान की आवशयक्ता होती है आश्चर्य है उस काल में आज की आज की तरह की उच्च ताप भट्ठियां नही थी तो ये कैसे ढाला गया। वर्षो बाद भी इसमें जंग नही लगा।
यह लौह स्तम्भ वर्षो से प्रश्न चिन्ह की तरह खड़ा है। इसका निर्माण कब कैसे हुआ किसी इतिहास कार या बैज्ञानिक को ज्ञात नही।
सर्वप्रथम ग्यारहवी शती के तोमर शासक अनंग पाल ने इस स्तम्भ के सम्बन्ध में उत्सुकता दर्शायी। अनंग पाल ने अपने राज ज्योतिषियों और बिद्वानो को इस स्तम्भ के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने का आदेश दिया किन्तु असफलता हाथ लगी। कहते है निराश होकर अनंग पाल ने इस स्तम्भ को जड़ से उखाड़ने का आदेश दे दिया । किवदन्ति है की थोडा खोदने पर रक्त की धार बह निकली । राज ज्योतिषी ने कहा की महाराज यह लौह स्तम्भ शेषनाग के फन पर टिका है। अतः अटल है। जब तक यह अटल रहेगा आपका शासन भी अटल रहेगा। अनंग पाल ने उस गड्ढे को पटवा दिया फिर भी वह हिलता रहा जिससे लोगो ने उसे डिल्ली कहना शुरू कर दिया आगे चलकर वही दिल्ली हो गया।
स्तम्भ पर दो लेख लिखे गए है। एक पृथ्वीराज चौहान का जिसने बारहवी शदी के अंत तक शासन किया था। दूसरा चौथी सदी का गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में।
गुप्तकालीन लेख में लिखा गया है- संगठित होकर आये शत्रुओ को बंगाल की लड़ाई में खदेड़ देने वाले जिस राजा की भुजाओ पर यश का लेख तलवार से लिखा गया हो जिसने सिंधु नदी में सात मुहानों को पार कर बहिलको को जीता जिसकी शक्ति के झोको की सुरभि आज भी दक्षिण समुद्र में बसी है जिसके शांत हो चुके महादावानल की आंच जैसे प्रताप ने शत्रुओ का नाश कर दिया वह राजा खिन्न होकर पृथ्वी छोड़ गया और अपने कार्यो से अर्जित लोक में विचरण करता है उसका यश पृथ्वी पर कायम है। अपने बाहुबल से दुनिया में एकछत्र राज्य स्थापित कर बहुत दिनों तक उपभोग करने वाले पूर्ण चन्द्र का मन विष्णु में रम गया और विष्णु पद पहाड़ी पर विष्णु ध्वज की स्थापना की।
इस लौह स्तम्भ के बारे में कई बिद्वानो का मत है की यह एक प्राकृतिक वस्तु है और प्रारम्भ से इसी स्थान पर स्थित है। कुछ बिद्वान इस स्तम्भ को प्राचीनकाल में पृथ्वी पर आये अन्य ग्रह वासियो द्वारा छोड़ा गया बताते है। एरिक डेरिकेन् ने तो इस सम्बन्ध में कई प्रमाण भी अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किये है किन्तु एक प्रश्न तब भी अनुत्तरित रह जाता है की इतने सुदृढ़ लौह स्तम्भ के शीर्ष पर स्थित कमल के फूल की आकृति किसने बनाई।
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